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जाने क्यूँ मुझे अपना चेहरा धुंधला लगता है / शमशाद इलाही अंसारी

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जाने क्यूँ मुझे अपना चेहरा धुंधला लगता है,
ना उम्मीद बादलों से आस्माँ घिरा लगता है।

बहुत लग-लग के बैठे हैं लोग इस महफ़िल में,
फ़ासले बड़े़ हैं दरम्याँ ये साफ़ मुझको लगता है।

जाम-ए-दिलबर जिसने पिया आज उसकी आँखों से,
उम्र भर वो अब न पिएगा ऐसा मुझको लगता है।

कल तक जो गाता था यहाँ मौहब्बत के तराने,
जुर्मे क़त्ल में हुआ आज गिरफ़्तार वो लगता है।

न उमंग है न तरंग है अब के सावन में "शम्स"
पहली बारिश की सौंघी ख़ुशबू का ज़ायका जुदा लगता है।


रचनाकाल : 11.04.2003