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जाने वफ़ा के सोग में खूँ से भरी थी शाम एक / सादिक़ रिज़वी

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जाने वफ़ा के सोग में खूँ से भरी थी शाम एक
जिसको शफक का दे दिया है अहले वफ़ा ने नाम एक

इश्क़ भी नातमाम है हुस्न भी नातमाम है
शौके जुनूं की पुख्तगी ठहरी खयाले खाम एक

पासे वफ़ा तुझे भी है मैं भी वफ़ा शेआर हूँ
दोनों की फिक्र एक है दोनों का है कलाम एक

रूह का ज़ख्म दिन ढले ऐसा न हो कि खिल उठे
कैसे कहूं कि फूल की ज़िद में है आई शाम एक

बंदए खास-ओ-आम को हरगिज़ न हम शरफ कहें
करता है इक जलील तो करता है एहतराम एक

फर्क़ ज़रूर कीजिये बंदए खास-ओ-आम में
उस को न पाक जानिये पी ले जो झूटा जाम एक

हक़ की नज़र में ख़ास है दोनों जहाँ में वो बशर
जिसने दिया है दार से सच्चा हमें पयाम एक

ख़त्म पे आ गयीं हैं अब तीरह शबी की वहशतें
सब्र तो कर तू ऐ सहर आने को है पयाम एक

रिज़्क के वास्ते दुआ 'सादिक़' ने की बहुत मगर
होती भी पूरी किस तरह करता नहीं वह काम एक