जान कर बन रही है क्यों अनजान / नज़ीर बनारसी
जान कर बन रही है क्यों अनजान,
ऐ मिरी जिन्दगी मुझे पहचान,
घाट पर मन्दिरों के साये में
बैठ कर दूर कर रहा हूँ थकान
गोते खाती है दृष्टि गंगा मं
और करती है चेतना स्नान
घाट पर इस तरह हँसीं लहरें
जैसे माता की गोद में संतान
कितने शब्दों को पंख देती है
अपनी बेपंख कल्पना की उड़ान
यों खयालात का उतार-चढ़ाव
जैसे पर्वत की ऊँची-नीची चटान
फूटते हैं वहाँ-वहाँ से गीत
टूटती है जहाँ-जहाँ से तान
मेरे गीतों में ऐसी सोंधी गमक
साँस लेता हो जैसे हिन्दुस्तान
काशी नगरी की खाक हूँ प्यारे
’बतकदा’ है मेरा निवास स्थान
पास मन्दिर में बज हर है गजर <ref>मन्दिर में प्रातः आरती का प्रथम घण्टा</ref>
दूर मस्जिद में हो रही है अजान
सजदा वो भी बुतों के झुरमुट में
कितना मजबूत है मेरा ईमान
मैं तिरासी बरस से चलता हूँ
जिन्दगी कुछ दिनों की है मेहमान
वक्त मिलने का फिर मिले न मिले
ये मुलाकात भी गनीमत जान ।