जान प्यारी थी मगर जान से बे-ज़ारी थी / 'साक़ी' फ़ारुक़ी
जान प्यारी थी मगर जान से बे-ज़ारी थी
जान का काम फ़क़त जान-फरोशी निकला
ख़ाक मैं उस की जुदाई में परेशान फिरूँ
जब के ये मिलना बिछड़ना मेरी मर्ज़ी निकला
सिर्फ़ रोना है के जीना पड़ा हलका बन के
वो तो एहसास की मीज़ान पे भारी निकला
इक नए नाम से फिर अपने सितारे उलझे
ये नया खेल नए ख़्वाब का बानी निकला
वो मेरी रूह की उलझन का सबब जानता है
जिस्म की प्यास बुझाने पे भी राज़ी निकला
मेरी बुझती हुई आँखों से किरन चुनता है
मेरी आँखों का खंडर शहर-ए-मआनी निकला
मेरी ग़ुबार निगाहों से वफ़ा माँगता है
वो भी मोहताज मिला वो भी सवाली निकला
मैं उसे ढूँढ रहा था के तलाश अपनी थी
इक चमकता हुआ जज़्बा था के जाली निकला
मैं ने चाहा था के अश्कों का तमाशा देखूँ
और आँखों का ख़ज़ाना था के ख़ाली निकला
इक नई धूप में फिर अपना सफ़र जारी है
वो घना साया फ़क़त तिफ़्ल-ए-तसल्ली निकला
मैं बहुत तेज़ चला अपनी तबाही की तरफ़
उस के छुटने का सबब नर्म-ख़िरामी निकला
रूह का दश्त वही जिस्म का वीराना है
हर नया राज़ पुराना लगा बासी निकला
सिर्फ़ हशमत की तलब जाह की ख़्वाहिश पाई
दिल को बे-दाग़ समझता था जुज़ामी निकला
इक बला आती है और लोग चले जाते हैं
इक सदा कहती है हर आदमी फ़ानी निकला
मैं वो मुर्दा हूँ के आँखें मेरी ज़िंदों जैसी
बैन करता हूँ के मैं अपना ही सानी निकला