भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाळ / प्रमोद कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
म्है जाणा
कै म्हानै उडणौ आंवतौ
पण अबै म्है उड नीं सकां
कांई ठा
कूण म्हारी पांख्या कील दी
अर म्है बोलां उण स्यूं पैलां‘ई
होटां रै साथै
म्हारी जीभ सीम दी
अबै
इण अंधारै कोठै मांय
म्हूं कबूतरां नै कई बार
कबूतर अर सिकारी री
का‘णी सुणाई है
पण लागै है
बै उडणौ‘ई नीं चावै,
ज्यै चावै
तो कितरी‘क मोटी अबखाई है
ओ जाळ!