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जा के इक बार फिर आता नहीं / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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जा के ये इक बार फिर आता नहीं
वक़्त खुद को फिर से दुहराता नहीं
आती जाती हैं बहारें लौटकर
वक़्त फिर से लौटकर आता नहीं
याद आता है वो गुज़रा वक़्त क्यों
लौटकर जो फिर कभी आता नहीं
जख़्म दिल का दिल ही को मालूम है
दिल किसी को जख़्म दिखलाता नहीं
मयकशी बीते दिनों की बात है
जाम से अब जाम टकराता नहीं
झूठ, धोखा और दिखावे के सिवा
दहर में कुछ भी नज़र आता नहीं।