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जिंदगी बनकर / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
हजार दस्तकें पहुँचीं
द्वार पर
बेशुमार आहटें
सजधज कर पहुँचते रहे
नए नए पैगाम उल्फत के लेकिन मेरा द्वार
खुला नही
न ही मेरा दिल
खुद को बचाए रखा
मतलबपरस्तियो से
आँगन से खुलते द्वार से
मैं निकल गई दूर
बहुत दूर
देखा एक वीरान सी
घाटी मे
तुम बाँसुरी पर
गा रहे थे शून्य को
मै चुपके से पहुँची
और धुन बन गई
तुम्हारी उँगलियो पर
नाचती हुई
तुम्हारी खुशबू होकर
रच बस गई मै
हर फूल में, हर पत्ती में
दरख्तों ने शाखें हिलाईं दुआओं की
फूलों से भर गई मेरी माँग
प्रकृति के इस पैगाम ने
थोड़ी सी मोहलत
और दे दी
ज़िन्दगी को