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जिं़दगी के दीप क्यों बुझा रही हैं लड़कियाँ / उर्मिल सत्यभूषण

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जिं़दगी के दीप क्यों बुझा रही हैं लड़कियाँ
मौत की आगोश में क्यों जा रही हैं लड़कियाँ

नित नये चेहरे लगाकर, नित नये पैरहन बदल
कैसे कैसे द्वन्द्व को छुपा रही हैं लड़कियाँ

युग युगों से लाज से झुकी रही है जो सदा
वो झुकी सी गर्दनें उठा रही हैं लड़कियाँ

रोष-प्रतिशोध की सदियों से सुलगी आग में
जल रही हैं लड़कियाँ, जला रही हैं लड़कियाँ

जिं़दगी के श्वेत पट पर कालिमा को पोतकर
सोचती हैं इन्कलाब ला रही हैं लड़किया

जिं़दगी तो युद्ध है और युद्ध रत शक्स है
फिर भला क्यों युद्ध से घबरा रही हैं लड़कियाँ

आंधियाँ कैसी चली अविवेक की, अविचार की
बिन खिले ही शाख़ पर मुर्झा रही हैं लड़कियाँ

आस्थाओं, रीतियों पर प्रश्नचिन्ह टांगती
मर रही हैं, फांसियां लगा रही हैं लड़कियाँ

तू बता उर्मिल उन्हें जीवन सहेली का पता
मौत को जो बेवजह अपना रही हैं लड़कियाँ