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जिज्ञासा / शमशाद इलाही अंसारी
Kavita Kosh से
उस खामोश
सन्नाटे से भरी
कोठरी में
कुम्लाही सी रोशनी के बीच
अपने नाखूनों वाले पंजों से
फ़र्श को
कई कई बार खुरच कर
वह देख चुका था
जिसके एक कोने में
रत्ती रत्ती भर
राख़ टपकती रहती
क्योंकि, ठीक उसके ऊपर
एक अगरबत्ती जलती
......ज़िन्दगी के डिब्बे में
और कितनी अगरबत्तियाँ शेष हैं
इस कोशिश में, इस जिज्ञासा में
वह बेजान हो चुका है.
रचनाकाल: जनवरी १५,२०११