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जिनिगी के जख्म, पीर, जमाना के घात बा / मनोज भावुक

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जिनिगी के जख्म, पीर, जमाना के घात बा
हमरा गजल में आज के दुनिया के बात बा

कउअन के काँव-काँव बगइचा में भर गइल
कोइल के कूक ना कबो कतहीं सुनात बा

अर्थी के साथ बाज रहल धुन बिआह के
अब एह अनेति पर केहू कहँवाँ सिहात बा

भूखे टटात आदमी का आँख के जबान
केहू से आज कहँवाँ, ए यारे, पढ़ात बा

संवेदना के लाश प कुर्सी के गोड़ बा
मालूम ना, ई लोग का कइसे सहात बा

'भावुक' ना बा हुनर कि लिखीं गीत आ गजल
का जाने कइसे बात हिया के लिखात बा