जिन्दगी तो सफर है मगर रात का / श्यामनन्दन किशोर
स्वप्न आओ, सुहागिन करो नींद को,
जिन्दगी तो सफर है मगर रात का!
जो सुबह हो गई तो अँधेरा कहाँ,
मुँह छिपाये घरों में बसेरा कहाँ,
आँख ही खुल गई जो समयसे अगर-
गाँठ के मोतियों का लुटेरा कहाँ?
हर चरण का निमंत्रण लुभाता हुआ,
प्रीत तो पंथ है किन्तु बरसात का!
सब किसी को विपद ढेर का ढेर है!
अश्रु का मुस्कुराना कि अन्धेर है!
आज महफिल में दुनिया की जो सुन रहे
जिन्दगी है गज़ल दर्द तो शेर है।
बीन बजती नहीं है सहज भाव से
साधना सुर मधुर, किन्तु आघात का!
आज ही तो हुए पूर्ण शृंगार हैं,
आँख से चुप उमड़ते हुए प्यार हैं।
एक डोली सजायी रखी सामने,
पास कन्धे भिड़ाये खड़े चार हैं।
बहन-भाई बधाई भले ही न दें,
साज तो सज गया एक बारात का!
मानता हूँ, सफर आज पूरा हुआ,
फ़र्ज ही रास्ते का अधूरा हुआ,
एक आशीष ही बाँटता रह गया,
धर्म से माँगने मैं गया कब दुआ!
प्रिय-मिलन की रही बेकली इस तरह
ध्यान ही कुछ गया रह न सौगात का!
(25.11.70)