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जिन्हें हमने संवारा है नहीं उनको गवारे हम / सुजीत कुमार 'पप्पू'

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जिन्हें हमने संवारा है नहीं उनको गवारे हम,
जफ़ा करते रहे फिर भी उन्हीं को ही पुकारे हम।

मिले थे जब तसव्वुर में खिले थे फूल हसरत के,
हुए जब रू-ब-रू दोनों रहे बनके बेचारे हम।

मुलाकातें ज़रूरी भी अधूरी ही रही होती,
न जाने रात-दिन कितने अकेले ही गुज़ारे हम।

बिछाएँ राह में जिनकी हमेशा ही पलक अपनी,
मगर क़िस्मत ही रूठी थी नहीं समझे इशारे हम।

बहुत ज़िद थी बदलने की मुक़द्दर की लकीरों को,
बड़ा ही बेरहम निकला हमारा वक़्त हारे हम।

गिरे सौ बार जीवन में उठे हर बार आशा में,
दिखे धारा लगाते जो सफ़ीने को किनारे हम।

तरसकर ज़िंदगी अपनी मिली आकर गले बोली,
हुआ है जो उसे भूलो चलो क़िस्मत संवारे हम।

भरोसा कर लिया मैंने तसल्ली मिल गई दिल को,
किए वादे मगर झूठे बने फीके सितारे हम।

निभाई प्रीत कैसी ये अरी ओ ज़िंदगी तूने,
मुझे कुछ भी नहीं मालूम हुए कैसे नकारे हम।

भला है या बुरा है जी लुभाने में जुटी दीमक,
ख़तों को खोलकर बैठी उसे कैसे उतारें हम।