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जियो और जीने दो / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जंगलपन की
शूल कथाएँ
सिंधु पार हम छोड़ें
बीज नये जो समता वाले
सबके मन में बोयें
एक दूसरे के सुख-दुख को
हिलमिल कर हम ढोयें
मिले सभी को
धूप उजाला
दिशा सूर्य की मोड़ें
“ जियो और जीने दो “ सबको
ऐसा मंतर बाँचें
समय-समय पर अपने को भी
कई तरह से जाँचें
भेद अपावन
त्यागें हम सब
मिथक अमानुष तोड़ें
साथ-साथ हम मिलकर खायें
चलें साथ में राहें
करें साधना योगक्षेम की
सबकी हों ये चाहें
मनसा वाचा
और कर्मणा
कर्म सुनहरे जोड़े