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जिसके जिगर के ख़ून से है घर बना हुआ / राम नाथ बेख़बर

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जिसके जिगर के ख़ून से है घर बना हुआ
वो शख़्स अपने घर में है नौकर बना हुआ

रुख़ सुर्खरू है जिसका ग़रीबों के ख़ून से
फिरता है वो समाज में ईश्वर बना हुआ

बाहर से भर चुका है मेरा ज़ख़्म साथियो
लेकिन अभी तलक है ये अंदर बना हुआ

उनसे कभी तो राह में मिलना नसीब हो
यह सोचकर हूँ राह का पत्थर बना हुआ

ख़ुद अपने हाथ में ये लकीरें बनाई हैं
मुझको कहाँ मिला है मुक़द्दर बना हुआ

मासूम ख़्वाब खिलते नहीं उसके आस-पास
काँटों से 'बेख़बर' का है बिस्तर बना हुआ