रात के इस नीरव सन्नाटे को
कोई मूर्तिकार तोड़ रहा है
अपने छेनी-हथौड़े से और
तुम कहते हो
तुम्हारी नींद में ख़लल है यह !
ठठेरे की यह ठक्-ठक्
भोजन पकाने के बर्तन के पेंदे को
एकदम सही गोलाकार देने के लिए है और
तुम कहते हो
तुम्हारी एकाग्रता में बाधक है यह !
तुम्हे तो तकलीफ
तॉलस्ताय की कलम से लिखे जाते वक़्त
होने वाली आवाज़ से भी थी और
विंची की कूची के चलने से भी और
ग़ालिब के शे`रों की साफ आवाज़ भी
तुमसे कहाँ बर्दाश्त होती थी !
अंधे घड़़ीसाज हानूश़ की घड़ियों की
उसी टन्-टन् से
तुम्हे शिकायत रही
जिसे सुनकर तुम उठते रहे रोज
बड़ी अजीब बात है
यह सब जानते हुए भी
तुम जिन आवाज़ों को
अब भी़ शोर कह रहे हो
वे दरअसल प्रसव पीड़ा की कराहें हैं
एकदम नैसर्गिक
ऐसी ही आवाज़ों में से
निकलती है एक नई आवाज़ ।