भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिस्म की ज़िद है सर पे कोई छत ही हो / सूरज राय 'सूरज'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिस्म की ज़िद है सर पर कोई छत ही हो।
आशियाँ अपना हो चाहे तुर्बत ही हो॥

मैं मुहब्बत हूँ मुझको चुरा ले कोई
क्या ज़रूरी है कि मेरी कीमत ही हो॥

खोल लेने दो पलकें मुझे लाश की
आँख की पुतलियों में कहीं ख़त ही हो॥

उसके अश्कों ने मुझको छला बारहा
मैंने जब-जब भी सोचा नदामत ही हो॥

सोचकर वह ये आया मेरी क़ब्र पे
काश उसकी तरह मुझको फ़ुर्सत ही हो॥

टांक दी आँख चौखट में तकते हुये
उसके आने का दिन अब क़यामत ही हो॥

वो मेरे दिल में रहने को कह दें कभी
इस बहाने मकां की मरम्मत ही हो॥

तू सरापा किसी का हो मुमकिन नहीं
कुछ हो तुझमे मेरा चाहे नफ़रत ही हो॥

नाम से आग "सूरज" के बेची गई
क्या पता ये दियों की शरारत ही हो॥