भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे
हम किसी की आरज़ू में क्या से क्या होने लगे

बेकसी ने बे-ज़बानी को ज़बां क्या बख़्श दी
जो न कह सकते थे अश्कों से अदा होने लगे

हम ज़माने की सुख़न-फ़हमी का शिकवा क्या करें?
जब ज़रा सी बात पर तुम भी ख़फ़ा होने लगे

रंग-ए-महफ़िल देख कर दुनिया ने नज़रें फेर लीं
आशना जितने भी थे ना-आशना होने लगे

हर क़दम पर मंज़िलें कतरा के दूर होने लगीं
राज़हाये ज़िन्दगी यूँ हम पे वा होने लगे

सर-बुरीदा, ख़स्ता-सामां, दिल-शिकस्ता,जां-ब-लब
आशिक़ी में सुर्ख़रू नाम-ए-ख़ुदा होने लगे

आगही ने जब दिखाई राह-ए-इर्फ़ान-ए-हबीब
बुत थे जितने दिल में सब कि़ब्ला-नुमा होने लगे

आशिक़ी की ख़ैर हो "सरवर" कि अब इस शहर में
वक़्त वो आया है बन्दे भी ख़ुदा होने लगे!