जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला / 'वहीद' अख़्तर
जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला
हाथ आया जो यक़ीं वहम सरासर निकला
इक सफ़र दश्त-ए-ख़राबी से सराबों तक है
आँख खोली तो जहाँ ख़्वाब का मंज़र निकला
कल जहाँ जुल्म ने काटी थीं सरों की फसलें
नम हुई है तो उसी ख़ाकसे लश्कर निकला
ख़ुश्क आँखों से उठी मौज तो दुनिया डूबी
हम जिसे समझे थे सहरा वो समंदर निकला
ज़ेर-ए-पा अब न ज़मीं है न फ़लक है सर पर
सैल-ए-तख़लीक़ भी गिर्दाब का मंज़र निकला
गुम हैं जिबरील ओ नबी गुम हैं किताब ओ ईमाँ
आसमाँ ख़ुद भी ख़लाओं का समंदर निकला
अर्श पर आज उतरती है ज़मीनों की वही
कुर्रा-ए-ख़ाक सितारों से मुनव्वर निकला
हर पयम्बर से सहीफ़े का तक़ाजा न हुआ
हक़ का ये क़र्ज भी निकला तो हमीं पर निकला
गूँज उठा नग़मा-ए-कुन दश्त-ए-तमन्ना में ‘वहीद’
पा-ए-वहशत हद-ए-इम्काँ से जो बाहर निकला