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जिस दिन तुम / अज्ञेय

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जिस दिन तुम मार्ग पूछने निकले, उसी दिन
तुम तीर्थाटक से निरे बेघरे हो गये; तुम्हारा पथ खो गया।

जिस दिन तुम ने कहा, विवेक तो नाम है श्रद्धा के
अस्वीकार का, उस दिन तुम हुए तर्कना के : विवेक तुम्हारा सो गया।

फिर भी तुम मरे नहीं : तुम से तुम्हारी सम्भावनाएँ बड़ी हैं।
वही, ओ आलोक-सुत, पिता तम-भ्रान्ति के,
आज भी तुम्हारा दीपस्तम्भ बन खड़ी हैं।

चलो : अभी आस है
कितना बड़ा सम्बल तुम्हारे पास है कि तुम में कहीं पहुँचने की चाह है।

यह तुम छटपटाते हो कि काँटों में उलझ गये,
चट्टान से टकराये, बीहड़ में फँस गये,
फिसलन थी, रपटे; गिरे खड्ग-खाई में; कहीं कीच-दलदल में
धँस गये,
लम्बी अँधियाली किसी घाटी में
टेढे-मेढ़े कोस पर कोस नापते रहे,
लम्बी अँधियाली शीत रात में
बिना दूर दीप तक के सहारे के ठिठुरते-काँपते रहे
गिरते, पड़ते, मुड़ते, पलटते, कभी पैर सहलाते, कभी माथा पोंछते
चले तुम जा रहे हो खीझते, झींकते, सोचते
कि लक्ष्य जाने कहाँ है, किधर है, (है भी या कि भ्रम है?)-
बीहड़ में अकेले भी निश्चिन्त रहो!
स्थिर जानो :
अरे यही तो सीधी क्या, एक मात्र राह है!

पेरिस, 26 अक्टूबर, 1955