जिस से अपना दर्द कहा जाता नहीं / बालस्वरूप राही
जो सब से ज्यादा उदास हो आदमी
जिस की आंखें हों कुहरे-सी शबनमी
उस के संग रोओ तो रोना पुण्य है
उसके साथ हंसो तो हंसना धर्म है।
बादल नहीं बरसते रेगिस्तान में
कोई फूल नहीं खिलता श्मशान में
सिर्फ चांदनी नहीं कांपती धूप सी
धरते हुए चरण बीहड़ सुनसान में।
जिस के पास कभी कोई आता नहीं
जिस का किसी को भी भाता नहीं
जिस का मन सूना पतझर की शाम सा
उस के गेह बसो तो बसना धर्म है।
अपनी पीड़ा कौन यहां गाता नहीं
घायल हो कर मौन रहा जाता नहीं
पर क्या होगा उस ग़मगीन गुलाब का
जिस से अपना दर्द कहा जाता नहीं?
जिस के अधरों तक गायन आया नहीं
जिस की पलकों तक सावन आया नहीं
उस पर गीत लिखो तो लिखना पुण्य है
उस को आलिंगन में कसना धर्म है।
यह तो इस दुनिया की रीत प्रसिद्ध है
उस को और बढ़ाना जो समृद्ध है
लेकिन उस की व्यथा कौन पहचानता
जिस की उम्र जवान मगर मन वृद्ध है।
जिस की भोर क्षुधाकुल, प्यासी सांझ हो
जिस के आंगन की मिट्टी तक बांझ हो
फूलो! उस के द्वार सरसना पुण्य है
मेघो! उस के गेह बरसता धर्म है।