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जीतने की अगरचे आस नहीं / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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जीतने की अगरचे आस नहीं
मैंने छोड़ा मगर प्रयास नहीं
तू भी पारो कहाँ से दिखती है
मानता हूँ मैं देवदास नहीं
कोकाकोला है इसमें तेरी क़सम
रम या व्हिस्की भरा गिलास नहीं
तेरे जाते ही बुझ गए चेहरे
कौन ऐसा है जो उदास नहीं
छन्द-लय-मुक्त उनकी कविताएं
जैसे तन पर कोई लिबास नहीं
छीन लूँ जाम और का या रब
ऐसी भड़के कभी भी प्यास नहीं
गुफ़्तगू किससे कर रहा हूँ मैं
कोई भी मेरे आस पास नहीं
मन का राही भटकता फिरता है
ऐ ‘अकेला’ कहीं निकास नहीं