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जीता हूँ इसलिए कि जीता ही जा रहा हूँ / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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जीता हूँ इसलिए कि जीता ही जा रहा हूँ
मिलता है जहर भी तो पीता हो जा रहा हूँ
किस इन्तजार में दिन चुपके से गुजरते हैं
घिसती हैं उम्र धीरे अन्दाम घिस रहा है
इज्जत औ आबरू की चक्की में पिस रहा है
इन्सानियत की किश्ती आँसू में तैरती है
इन्सान बैठ उस पर खेने की मिस बहा है
यह आसमां मिला भी लेकिन फटा हुआ ही
इफलास की सुई से सीता ही जा रहा हूँ
रोता नहीं हूँ दुनिया दिल की न जान ले फिर
कहता नहीं हूँ काफिर मिलके न जान ले फिर
यह राह जिन्दगी मंजिल बड़ी पड़ी है
थकता नहीं हूँ कुदरत काहिल न मान ले फिर
दिल, जेब, हाथ, तीनों हैं एक साथ खाली
भरने की करके कोशिश रीता ही जा रहा हूँ