भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन-घट मिला; किन्तु रीता रहा / कविता भट्ट

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

                                                                                                     
जाने क्यों हिचकियों में ही जीता रहा।
जानता सब था; फिर भी पीता रहा।

प्रतिष्ठा पिता की माटी हुई,
पहली घूँट की परिपाटी हुई।
आशाएँ माँ की इति हो गई,
दूजा घूँट तो नियति हो गई।

जीवन-घट मिला; किंतु रीता रहा।
जानता सब था; फिर भी पीता रहा।


शान्ति पत्नी की वह पी गया,
तीजे में आतुर हिय भी गया।
नन्हों के सपनों की हत्या हुई,
चौथे घूँट में बात मिथ्या हुई।

आधि-व्याधि के दलदल में मीता रहा।
जानता सब था; फिर भी पीता रहा।

घूँट पर घूँट नित आवर्तित हुए,
बरस-माह-ऋतु परिवर्तित हुए।
जाना कहीं था, कहीं खो गया,
मनुज- तन धरा, दानव हो गया।

जाने किस भरम में ही जीता रहा।
जानता सब था; फिर भी पीता रहा।

धन-धान्य-वैभव लुटाता रहा,
भान-आन-मान मिटाता रहा।
पशु- सा कभी जुगाली किया,
जीवन प्रतिदिन रुदाली किया।

जाने क्यों प्यालियों में ही जीता रहा।
जानता सब था; फिर भी पीता रहा।
-0-