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जीवन-जगत् का लेखा / तरुण
Kavita Kosh से
(काशी के गंगा-तट का एक दृश्य स्मृति-पटल पर लाते हुए)
तट पर खड़े हो मैंने देखा-
गंगा के प्रशांत, समतल नील जल-प्रसार पर
आकाश से सहसा द्रुत गति से डुबकी खाती-सी, उतर-
अपनी तीखी चोंच से, झपट्टा मार कर,
एक चील-जैसे, लगे हाथों, खेल-खेल में ही,
उड़ा ले गई एक नरम, काची, भोली मछली
(जो क्रूर संसार में बिना मतलबही, अपने आनन्द में थी उछली!)
-खींचती-सी जल पर
तरंगाकुलित एक क्षणिक अस्थिर गहरी रेखा!
क्या था वह जीवन-जगत् का लेखा?
1988