जीवन-तरंग / रामगोपाल 'रुद्र'
जीवन तो जल की माया है।
दुख है, सुख भी है जीवन में, जीवन सुख-दुख की छाया है!
जो आज बहुत इठलाते हैं,
है नाज़ जिन्हें अपने तन पर;
जो फूले नहीं समाते हैं,
है नाज़ जिन्हें अपने धन पर;
सपनों के महल बनाते हैं,
है नाज़ जिन्हें अपने मन पर;
उँगली पर विश्व नचाते हैं,
है नाज़ जिन्हें अपने फ़न पर;
भरमाये हैं वे आप, जिन्होंने दुनिया को भरमाया है!
है नाच रहे वे आप, जिन्होंने जग को नाच नचाया है!
मैंने देखे हैं फूल बहुत,
मैंने देखे हैं शूल बहुत;
देखी है मैंने धार बहुत,
देखे हैं मैंने कूल बहुत;
दुनिया में मतलब की बातें
थोड़ी हैं, ऊल-जुलूल बहुत;
हर एक हवा जब बही, गंध
लाई थोड़ी, पर धूल बहुत;
अचरज है, अपने ही खेलों ने कितना खेल खिलाया है!
दुख दर्द लिये आया, तो सुख ने सपनों से ललचाया है!
कल फूल एक इठलाता था,
गुलशन में अपनी डाली पर;
वह नर्गिस का था फूल, मुग्ध
अपनी साने की प्याली पर;
तितलियाँ ललकती रहती थीं,
जिसके जीवन की लाली पर;
मुस्कान निछावर करता था,
जो भौरों पर और माली पर;
वह भूल गया था, दो दिन की उसकी भी सुंदर काया है!
वह भूल गया था, दो दिन को मधुमास यहाँ पर आया है!
अरमान बहुत तो उठते हैं,
पल-पल मन में लहराते हैं;
ये बुल्ले भी तो, पानी पर,
पल-पल छाते-छहराते हैं;
उठते यौवन के ज्वार कभी
तूफान लिये जो आते हैं;
मेरे मूर्च्छित मन में, फिर से,
व्याकुल सपने भर जाते हैं;
इन सपनों में पड़कर तो मैंने सर्वस्व गँवाया है!
हीरों के हार लुटाये हैं, बालू का महल उठाया है!
अब और कहाँ ले जाती है
चंचल मन की यह धार मुझे,
देखूँ, अब और दिखाता है
क्या-क्या, छलिया संसार मुझे;
मैं तो बढ़ता ही जाऊँगा,
अब जीत मिले या हार मुझे;
इस पार मुझे जो लाये हैं,
ले जाएँगे उस पार मुझे;
बहलाता जाऊँगा दिल को, जैसे अब तक बहलाया है!
यह गाँठ वही सुलझावेगा, जिसने जीवन उलझाया है!