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जीवन-भर / नईम

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जीवन यह/दोमुँहा जिया,
बार-बार काटा
खुद का लहू पिया।

सूँघ लिया जिन्हें
वही रह गए,
काटा इसतरफ
उधर ढह गए;

आतंकित रहे सभी
स्वजन, बंधु, प्रिया।

पुत्र हुए
जन्म से अनाभारी,
और पिता
अफसर ज्यों सरकारी;

कोरा संवादहीन
नाटक ही किया।

जर्जर
मुनि श्रमण शाक्य,
टँगे हुए
संज्ञाहत आज वाक्य;

पम्परा को चूसा
प्रगति को अदेय दिया।
बूढ़ी कांक्षाओं के
पीछे-पीछे दौड़ा,
बहिरागत पुत्रों ने
अश्वरोक भ्रम तोड़ा;

भूले फिर मिली नहीं
शबरी या सिया।
जीवन-भर/जीवन यह दोमुँहा जिया!