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जीवन-रण-नाद / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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सभी चाहता है कि चमके सितारा;
रहे सब जगह रंग रहता हमारा।
पलक मारते काम हो जाय सारा;
जगे भाग का सब दिनों हो सहारा।
सँवरता रहे घर सुखों के सहारे;
रहें फूल बनते दहकते अँगारे।
किसे है नहीं चाह, आराम पाएँ;
उमंगों-भरे जीत के गीत गाएँ।
बड़ी धूम से धाक अपनी बँधाए;
बड़े घाघ को उँगलियों पर नचाएँ।
खिले फूल-जैसा खिलें, रंग लाएँ;
अँधेरे घरों में चमकते दिखाएँ।
मगर चाह से कुछ कभी है न होता;
अगर कोई अपनी कसर है न खोता।
फलों से न वह किस तरह हाथ धोता;
रहा बीज को जो कि ऊसर में बोता।
नहीं काम की है लगन जिसमें पाती,
कमाई उसे है अंगूठा दिखाती।
बड़े दिन-ब-दिन जो बने जा रहे हैं,
अमन-चैन के गीत जो गा रहे हैं,
हुनर से भरे जो कि दिखला रहे हैं,
जिन्हें आज फूला-फला पा रहे हैं,
बड़े-से-बड़े काम करके हैं छोड़े;
उन्होंने उचक करके तारे हैं तोड़े।
पसीना गिरे जो कि लहू गिरावें;
पड़े काम सर को गँवा काम आवें।
कहा जाय जो कुछ, वही कर दिखावें;
समय आ गये जान पर खेल जावें।
बता दीजिए, हममें कितने हैं ऐसे;
भला फिर नहीं खायँगे मुँह की कैसे?
सदा आँख के सामने हो उजाला;
बने बात बिगड़ी, रहे बोलबाला।
सगे हों सगे, हो भरा प्यार-प्याला;
खुले खोलने से सभी बंद ताला।
यही धु न है, पर हाथ में है न ताली।
रहेगी भला किस तरह मुँह की लाली।
रुके काम आकाश में दौड़ जावें;
लगा ठोकरें पर्वतों को गिरावें।
वनों को ख्रगालें, धारा को हिलावें;
उतरकर समुद्रों में हल-चल मचावें।
न जब रह गये जाति में वीर ऐसे;
रसातल चले जायँगे तब न कैसे?
कभी भाग ऐसा हमारा न फूटा;
गया घर कभी यों किसी का न लूटा।
कभी इस तरह जाति का सिर न टूटा;
कभी साथियों का न यों साथ छूटा।
मगर आज भी आँख है खुल न पाती;
न फटती दिखाती है पत्थर की छाती।
हमें आज है कौन-सा दुख न मिलता;
छिनी आँख की पुतलियाँ, मुँह है सिलता।
खुले आग हम पर सगा है उगिलता;
मगर हिल गये भी नहीं दिल है हिलता।
कलपतों को देखे नहीं जी कलपता;
कलेजा कढ़े है कलेजा न कँपता।
चले बात, जो हैं हमारे कहाते;
वही आज हैं घर हमारे ढहाते।
जिन्हें चाहिए था कि आँसू बहाते;
हमारे लहू से वही हैं नहाते।
बहुत डगमगा है रहा जाति-बेड़ा;
लगा मुँह पर उनके न अब तक थपेड़ा।
किसी में है धु न धाँधाली की समाई;
लगी है किसी के कलेजे में काई।
किसी की समझ को गयी छू है बाई,
किसी की सनक है नया रंग लाई।
कहें किससे क्या जाय दुख क्यों ऍंगेजा,
बिपत कहते आता है मुँह को कलेजा।
सभी जातियों को है जिसने जगाया;
जगी जोत से है भरी जिसकी काया।
नरक को भी जिसने सरग है बनाया;
कमल जिसने है ऊसरों में खिलाया।
नहीं रह सकेगी जो वह जाति जीती;
तो दुनिया रहेगी लहू-घूँट पीती।
बिना जल कमल हैं न खिलते दिखाते;
बिना जड़ नहीं पेड़ फल-फूल लाते।
रहे हाथ का जो कि पारस गँवाते।
उन्हें देख पाया न सोना बनाते।
नपेगा गला जाति-गरदन नपाए;
न होगा भला आग घर में लगाए।
कई सौ बरस से यही हो रहा है;
हमें भाग बिगड़ा हुआ खो रहा है।
इधार सुधा गँवाकर सुदिन सो रहा है;
उधर देख हमको समय रो रहा है।
तो दिन जाति का और ही आज होता;
हमारा कुदिन जो नहीं आग बोता।
उठो हिंदुओ, धाक अपनी जमा लो;
सचाई के बल से बला सिर की टालो।
सँभलकर बहकते दिलों को सँभालो;
बिपत में पड़ी जाति अपनी बचा लो।
विजय का घहरता रहेगा नगारा;
फहरता रहेगा फरेरा तुम्हारा।