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जीवन- रथ / कविता भट्ट

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थीं अव्यक्त- सी, कुछ पीड़ाएँ
जीवन- रथ- सी कुछ उपमाएँ
गत जीवन के मौन मुखर हो
प्रायः मुझे जगाते हैं रातों में

माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में ।

जो कुछ अपने थे या सपने थे
जिया विकल क्यों उन्हें पुकारे
निशा का ये जाने कौन प्रहर हो
बालू का घर न टूटे बरसातों में

माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में

प्रेम से प्रतिक्षण उसे बिठाया
प्यार से सिर भी था सहलाया
पग पखारे, टीका भोग लगाया
फिर क्रूर घड़ी क्यों आघातों में

माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में

क्यों मुझे निरंतर छेड़ रही हैं
गवाक्षों से ये कुटिल वेदनाएँ
द्वार खड़ी ये मुझे ही पुकारें
प्राण पखेरू भौंरे- से पातों में

माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में

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