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जीवन और शतरंज / मनोज चौहान

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जीवन और शतरंज में
आता नहीं है ठहराव कहीं भी
हारे हुए सिपाही के
न रहते हुए भी
चलते रहते हैं ये
अनवरत ही।

कौन किसे कब मात देगा
ये कहना मुश्किल है
मगर ये सच है कि
बैठे हैं घातिये हर ओर
घात लगाकर।

हर कदम पर
सतर्क रहते लड़ना होगा
यह नियम है
भावनाओं के आवेश में
मुश्किल हो जाता है
खेल और भी
एक हल्की सी चूक पर
समर्थ होते हुए भी
बजीर पिट जाता है
मात्र प्यादे से ही।

होता है आकंलन
सही और गलत का
खेल की समाप्ति पर
हार – जीत
यश-अपयश
और चलते है दौर
मंथन के भी।

चौकोर शतरंज की विसात पर
मरे हुए प्यादे
हाथी, घोड़े
पुनः खड़े हो जाते हैं
बाजी ख़त्म होने पर
नए खेल के लिए।

किन्तु
जीवन-शतरंज की विसात पर
नहीं लौटता है कोई भी
एक बार चले जाने के बाद
रह जाती है शेष
मात्र स्मृतियाँ ही
जीवन और शतरंज में
अंतर है मात्र
इतना सा ही।