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जीवन कागज़ की तरह / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
Kavita Kosh से
जीवन कागज की तरह, स्याही जैसे काम।
जो चाहो लिखते रहो, हर दिन सुबहो-शाम॥
नयी पीढ़ियों के लिए, जो बन जाते खाद।
युगों युगों तक सभ्यता, रखती उनको याद॥
मन का अंधियारा मिटे, चंहुदिश फैले प्यार
दीप-पर्व हो नित्य ही, कुछ ऐसा कर यार
सुख की फुलझड़ियाँ जलें, सब में भरें उजास
पीड़ा और अभाव का, कभी न हो अहसास
गली गली पसरे हुए, रावण के ही पाँव
दीप पर्व पर राम सा, बने समूचा गाँव