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जीवन का स्वाद / हेमन्त कुकरेती

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सब्ज़ी उगने का जादू नहीं देखता हर कोई
बाज़ार से ख़रीदकर खानेवाली नस्ल भी मुश्किल में पड़ गयी है अब

सब्ज़ियों के हैं कई संकट जुड़े हैं उनके रंगों और स्वाद से
खाना बनाने से पहले सब्ज़ियाँ काटना गुज़रना है कड़ी परीक्षा से
तीखी महक और बचे हुए मीठेपन को
एक ही थाली में सलीके से रखने का हुनर
जेब और दुकान में सुखद सम्बन्ध बनाने जितना कठिन है

दाल को छौंकना और भात उबालने से बड़ा काम है उन्हें
सही अनुपात में पकाना
विवाह के प्रेम में झगड़े का कारण
सब्ज़ियों के समीकरण समझ नहीं पाना है

लड़ाके और कटखने पड़ोसियों को भी हम जानने लगते हैं
सब्ज़ियों के नाम से
सब्ज़ियाँ धारण किये रहती हैं अपने गुणों को
भूख के कारण
जाति-भेद से शुरू भाषा-अन्तराल तक व्याप जाती है यह
अन्तहीन वार्ता
आलू सिखाता है कि हर जगह हिलमिलकर रहना, नष्ट होकर खिलना
मिर्चे हैं कि हर स्वादहीन का मुँह जलाना
सब्ज़ियाँ अनन्त हैं फिर भी सबको नहीं मिलतीं

एक जीवित औरत को सुहानी शाम भिण्डी में बदल देती है
और मरते हुए-से आदमी को प्राण दे देती है हरी सब्ज़ियाँ

बन्दगोभी की तरह पृथ्वी को छीलती हुई गृहिणियाँ
सब्ज़ियों का लोहा इकट्ठा करके दुनिया भर की गृहस्थियों को
बदल देती हैं अस्पताल में
जहाँ दुनिया के सबसे बड़े रोग भूख का इलाज होता है

शुक्र है सब्ज़ियाँ गोश्त नहीं खातीं
आदमी के लिए छुपाई महँगी सब्ज़ी को भी चाट जाते हैं कीड़े
सूँघने को ज़रूर मिलती है जानवरों को आदमी की उगायी
सबसे विरल वनस्पति

आदमी कितना बेचारा कि केवल नमक न होने से
स्वादिष्ट खाना भी बेस्वाद!