जीवन के गलियारे / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
यन्त्रकाल में धूमिल धूमिल लगते चाँद सितारे हैं ।
कोलाहल से भरे हुए सब जीवन के गलियारे हैं ।
पशुओं के आचरण चरण प्रगति पथ पर शोभित
धर्म संस्कृति मानवता के छूटे सभी सहारे हैं ।
युग की द्रौपदियाँ लज्जित हैं प्रतिज्ञा को तोड़ो
अतिक्रमण कर रहे दुशासन शासन के रखवारे हैं ।
पहले तो खुशियों के मोहन रास रचाया करते थे ।
अब उर पुर में डेरे डाले पीड़ा के बन्जारे हैं ।
धारा की गहरायी का वे क्या बखान कर पायेंगे ?
जो पाषाणी प्रतिमाओं से बैठे रहे किनारे हैं ।
सिसक रही सभ्यता दृगों के कोश लुटाती फिरती है
अंधियारों को गोद उठाए पुलक रहे उजियारे हैं ।
सुधियारों के घन कभी न छटते मन के नभ पर से पल भर
बरसातों से होड़ लगाये रहते नैन हमारे हैं ।
कहाँ व्योम पर घिरी घटाएँ भ्रम में केवल डाल रहीं
धुँधराले से बिखरे बिखरे श्यामल केश तुम्हारे हैं ।