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जीवन के दौर / निक्की जोवान्नी
Kavita Kosh से
उसने महसूस किया —
कभी विजयी नहीं हुई वह जीवन में
हमेशा अनिश्चित रहा उसका जीवन
वही कालिख़, वही गन्दगी
जैसे कोई अनचाहा बच्चा
पैदा होने वाला हो
समय पर गर्भ से नहीं गिरा पाए हों जिसको
कितनी सारी तरह-तरह की आदतें हैं उसको
कभी-कभी हस्तमैथुन करती है जैसे
जब ख़राब होता है मन बेहद
नाक ऊँची करके चुपचाप बैठे रहना चाहती है
अन्धेरे में
अजनबी नहीं है उदासी
किसी भी काली औरत या काले लेखक के लिए
बुजदिली से वह गटकती है शराब
कैसी ख़राब आदत है यह
स्वाद भी ख़राब इसका असर भी ख़राब
फिर आख़िरकार वह उससे
मल्लयुद्ध जीतकर
सो जाती है अपने बिस्तर पर