मैं धारा के अनुकूल न बह पाऊंगा
तुम तट पर मेरा इंतज़ार मत करना
मैं चलता हूँ सौ-सौ तूफ़ान जगाता
हर मुश्किल को खुद ही आवाज़ लगाता
मैं जन्मजात विद्रोही हूँ, बाग़ी हूँ
संघर्षों की गरमी का अनुरागी हूँ।
मैं अपने तन पर फूल न सह पाऊंगा
मालाओं से मेरा सिंगार मत करना।
मैं नये नये का मीत गये का दुश्मन
मैं सपनों के विपरीत, भोर का गुंजन
मैं बढ़ते हुए पथिक का सहज चरण हूँ
मैं चढ़ते हुए सूर्य की अरुण किरन हूँ।
मैं कारा के अनुकूल न रह पाऊंगा
तुम भुजबंधन पर ऐतबार मत करना।
मिलना हो मुझ से अगर, भँवर में आओ
उस पार इशारा कर मत मुझे बुलाओ
जीवन गतिमय धारा है कूल नहीं है
शूलों की मधुर चुभन है, फूल नहीं है।
अविरल तिरने को भूल न कह पाऊंगा
प्यारा हो तट तो मुझे प्यार मत करना।