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जीवन तो सबको होता है / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
Kavita Kosh से
जीवन तो सबको होता है
पर, जीवन किसका होता है?
जिसका अन्तर परम प्रबल है
रहा निरन्तर सहज सरल है
वह क्यों सुख की मधु घड़ियों में
दुख की लड़ी पिरोता है?
जीवन तो सब को होता है
पर, जीवन किसका होता है?
कहता है जग जड़ चेतन में
कहीं परस्पर मेल नहीं है
हृदय-वीन पर तन्द्रिल मृदु स्वर
झंकृत करना खेल नहीं है
यह नन्हा सा उर अन्तर में
युग-युग की पीर सँजोता है
जीवन तो सब को होता है
पर, जीवन किसका होता है?
सुख दुख की हिलती छाया में
अचपल नयन थके मुँदते हैं
स्थिर पलकों पर चुपके-चुपके
मन से प्राण कहा करते हैं
इस उलझन में ही अपने को
खोन वाला खोता है
जीवन तो सब को होता है
पर, जीवन किसका होता है?