जीवन बन तू अभिनव / कैलाश पण्डा
जीवन बन तू अभिनव
चिन्ता रहे न
किञत मन में
क्षण-क्षण कण-कण
जीवन बन तू अभिनव
सूरज जब देता प्रकाश
तब होता जग में उजियाला
प्रकृति की नस-नस
सम्पादित होती उससे
नये भोर का
नया रक्त सा
कहता मेरा सुख सम्पूर्ण जग का
उच्चतर-न्यूनतर के भाव
जगे न मन में
जीवन बन तू अभिनव
चन्द्र बनकर कृष्ण
ले सोलह कला
करता रास पूर्ण मास तक
थिरकते तारे भी
गोपियां बनकर
चमकते शरद रात-भर
देते सीख धरती को
तू भी चमक
हजारों सितारे तेरे भी
ताकि ले डगर
प्रेम भले ही ना मिलता हो तुझको
तू हो प्रेममयी
बिखर कर देख तो
फैलेगी खूशबू बयार युक्त
अंतःस्थल का तल
होगा झंकृत
जीवन बन तू अभिनव
अंधेरी रात में
काली चुनड़ी सा
दमके आसमां सितारों से
कहता धरती से
हारा हूं नहीं
लाखों पुञ ह्रदय में प्रचण्ड़
कड़कती धूप को भी
सहता हूं
जरा सी ठेस से
मुकर जाये जो
जीवन मेें हारता निश्चत वही
लक्ष्य है जहां जीवन है वहां
जीवन बन तू अभिनव
कड़कती बिजलियां
प्रवाह जब हो घना
उद्वेलित होता है तब
यौवन रस भरा
लगादी चेतना जहां कहीं भी
पुलकित हो धरा
केवल यहीं सोचना
विकसित हो अन्तर तरू
यही स्व साधना
त्याग ही तेरा अन्तर्सुख है
तृष्णा केवल में तू स्वयं को देख
तेरी विजय दिखेगी रज-रज में
जीवन बन तू अभिनव।