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जीवन भर तो साथ, नहीं चलता है कोई / कमलकांत सक्सेना

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जीवन भर तो साथ, नहीं चलता है कोई
दर्द यही है दर्द, नहीं हरता है कोई

अनबुझ अपने आते, अनकहनी कह जाते
गुमसुम मन की बात, नहीं सुनता है कोई

दर्पण कीच हुआ है, चारों ओर धुँआ है
दूर-दूर तक दीप नहीं जलता है कोई

नई नई सौगातें, बरसातीं बरसातें
सुमन, मधु, कुहू तृप्ति नहीं देता है कोई

जग की रीति पुरानी, सांसें आनी-जानी
रीते घट पर प्रीति नहीं करता है कोई