भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन विष पीते बीता / श्याम निर्मम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोग बहुत हैं
लेकिन उनका कहीं निदान नहीं ।
 
ये कैसी अनहोनी
जीवन विष पीते बीता
उमर बढ़ें हर रोज़
मगर ये अश्रु-पात्र रीता

चलते हुए
सभी लगते पर हैं गतिमान नहीं !

आशा की नैया को
मन के सागर ने लूटा
बीच धार का नाविक
थका, किनारे का टूटा

संकल्पों की
फ़सल उगाकर बने महान नहीं !
 
चेहरा-मोहरा देख
रोटियाँ मुँह तक हैं आतीं,
छोटा-सा है दीप
आंँधियाँ तेज़ बढ़ी जातीं

अगड़े-पिछड़े
हुए बराबर दिखे समान नहीं !

रहे किरायेदार सदा से
हम तन के घर में
ज़ख़्मी पंछी उड़ता है
परवाज़ लिए पर में

पूरा देश
हमारा घर, पर एक मकान नहीं !