जीवन व्यर्थहि बीत्यौ जात / स्वामी सनातनदेव
राग मध्यममाद, तीन ताल 29.8.1974
जीवन व्यर्थहि बीत्यौ जात।
कहा करों कछु चैन पायो, गयी वयस बिलखात॥
हरि दरसनकों नर-तनु पायो, सुनी भजन की बात।
सन्तन की संगति हूँ पायी, तोहूँ भजन न भात॥1॥
बढ़ि-बढ़ि बात करीं ग्रन्थन की, औरन कों समुझात।
सोधे विविध पन्थहूँ तोहूँ अपनो पथ न लखात॥2॥
साधन की बहु बात बनावत, लिखत लेख दिन-रात।
जन समाज में साध कहावत, तोहूँ विषय कमात॥3॥
सुन्यौ सुपनसम है प्रपंच सब, आपहुँ यही बतात।
ग्यानी भगत बन्यौ लोगन में, तोहूँ लोभ न जात॥4॥
मल की पोट देह सब जानत, मानत हूँ यह बात।
दिवस-रैन तनु ही की चिन्ता तोहूँ याहि सतात॥5॥
कहा कहों प्रमाद याके हरि! लखि-लखि स्वयं लजात।
तोहूँ होत न चेत प्रानधन! बड़ी अटपटी बात॥6॥
कैसे बात बनै मनमोहन! पन्थ न कोउ लखात।
पै तुम कृपा करहु तो प्यारे! बिगरी हूँ बनि जात॥7॥