जीवन से रु-ब-रु, 
अब तक जो जिया उसे 
और-और रुँधकर 
एक नई शक्ल दे कुम्हार !
आँखो की गोखरू 
निकालकर हथेली पर 
रखे-रखे घूम -झूम 
घटना के तौर पर कभी न कभी कूदेगा 
पर्वत से क्षण का लंगूर ।
जीवनगत सच की  
इस उफनाती धार में 
फेंककर स्वयं को 
अनुभूतियाँ इकट्ठी कर 
गुम्बद का मौन 
मुखर होना है एक दिन ज़रूर ।
बदली के गूदड़ फैलावों में 
समाधान खोज रहा जो लंगड़ी प्यास का , 
उस देशाचार को नकार ! 
जीवन से रु-ब-रु, 
अब तक जो जिया उसे 
और-और रुँधकर 
एक न शक़्ल  दे कुम्हार !