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जीवित के तो न्याय, धरम / नईम
Kavita Kosh से
जीवित के तो न्याय, धरम,
पर मरे हुए को
राम न मारे!
जिनकी पीठों चढ़ी सभ्यता,
जिनने उपजाई संस्कृतियाँ,
ठीक आप-हम जैसे ही हैं
उनके नाक-नक्श आकृतियाँ।
न्याय, धरम,
धरती की ख़ातिर
जिसने खून-पसीने गारे।
छोड़ चले ग़र वो परिपाटी
बिगड़ेगी धुर अपनी माटी।
चार कहार वही डोली के
बने हुए अंधों की लाठी।
खूब बजाते रहे नमक की
उनकी मेहनत
नाम हमारे।
धोए, माँजे, काते, सूते,
उनकी खाल हमारे जूते।
इतना सब हो जाने पर भी-
हम करुणा से रहे अछूते।
ज्ञानी यह कैसा प्रपंच है?
सौ-सौ लोक वेद से हारे।
मरे हुए को राम न मारे!