भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जी गए पूरा बरस / प्रदीप शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जी गए
पूरा बरस
बस लिए खाली हाथ
और अच्छे दिन हमारे घर नहीं आये

रोज उगता रहा
सूरज
मगर ज्यों का त्यों अँधेरा
धूप की बस बाट जोहे
आज भी बैठा सबेरा
धुंध, कुहरे ने
नहीं छोड़ा
अभी तक साथ
और हम यूँ ही खड़े हैं रोज मुँह बाये

चलो,
चलते हैं,
समय के पास तो होंगे उजाले
करें हम मजबूर,
शायद धूप मुट्ठी भर उछाले
हाथ जोड़े
उन्हें कब तक
कहें दीनानाथ
सूर्य ने तो ओढ़ रक्खे दंभ के साये

जी गए
पूरा बरस
बस लिए खाली हाथ
और अच्छे दिन
हमारे घर नहीं आये