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जी भर कर जी लेने दो / सुदर्शन रत्नाकर
Kavita Kosh से
टुकडे-टुकडे हो कर
बँट-बँट कर बहुत जी ली मैं
अब मुझको पूरा जी लेने दो
जीभर कर जी लेने दो।
नहीं जीना मुझे शिलाएँ बन कर
नहीं जीना अग्नि परीक्षाएँ देकर
अब सागर मुझको लाँघना है
आसमान भी छूना है
घुट घुट कर बहुत जी ली मैं
अब खुली हवा में जीने दो
जीभर कर जी लेने दो।
मैंने सातों वचन निभाये अपने
फिर भी क्यों रही अधूरी
जो चाहा, वो पाया तुमने
अब मुझको भी पहचान बनाने दो
छुप छुप कर बहुत जी ली मैं
अब खुल कर जी लेने दो मुझको
जीभर कर जी लेने दो मुझको।
कितनी सदियाँ बीत गईं,
गहरी काली रातों की
अब नया सवेरा आने दो
इक इतिहास नया रचाने दो,
डर कर बहुत जी ली मैं
अब मेरे मन से जी लेने दो
जीभर कर जी लेने दो।