जी ही जी में / जॉन एलिया
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
1.
जी ही जी में वो जल रही होगी
चाँदनी में टहल रहीं होगी
चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र
अब वो कपड़े बदल रही होगी
सो गई होगी वो शफ़क़ अन्दाम
सब्ज़ किन्दील जल रही होगी
सुर्ख और सब्ज़ वादियों की तरफ
वो मेरे साथ चल रही होगी
चढ़ते-चढ़ते किसी पहाड़ी पर
अब तो करवट बदल रही होगी
नील को झील नाक तक पहने
सन्दली जिस्म मल रही होगी
2.
गाहे-गाहे बस अब तही हो क्या
तुम से मिल कर बहुत खुशी हो क्या
मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को अक्सर भुला चुकी हो क्या
याद हैं अब भी अपने ख्वाब तुम्हें
मुझ से मिलकर उदास भी हो क्या
बस मुझे यूँ ही एक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या
अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या
क्या कहा इश्क जाबेदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या?
है फज़ा याँ की सोई-सोई सी
तुम बहुत तेज़ रोशनी हो क्या
मेरे सब तंज़ बेअसर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या?
दिल में अब सोज़े-इंतज़ार नहीं
शम्मे उम्मीद बुझ गई हो क्या?