भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जुबान और कान / भरत ओला
Kavita Kosh से
ठोकर लगते ही
मैं लड़खड़ाया
और दीवार से जा टकराया
दीवार बोली
लड़खड़ओ मत
चलना सीखो
मैंने पूछा
तुम्हारे जीभ कब उग आई ?
तो बोली
जब से तुने जान लिया
कि दिवारों के भी कान होते हैं