भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जूते में / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जूते में अपना पाँव डालते ही

लगता है

कि सिर डाल रहा होऊँ

फिर वही एक आवाज़ गूँजने लगती है

ठक-ठक

ठक-ठक से ऊँचा कोई भी स्वर

हो जाता है असह्य

जिसे उड़ा देना चाहता है जूता

अपनी ठोकरों में

और ऐसा करते

अक्सर वह

मेरे अपने ही सर से

ऊपर उठ जाता है।