भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जेठ का जुल्म / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
आग लगी है
सिर के ऊपर चढ़े सूर्य में
जेठ का जुल्म
जमीन की जवानी जलाए है
प्यासा खड़ा है
दिन का सूखा पहाड़
ओस के आसरे में
गह्वर मुँह बाए
मेघ का नहीं
ताप का तपा पानी
रेत पर रेंगता
सिसकता है
रचनाकाल: २६-०५-१९७३