भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जेहनों में ख़याल जल रहे हैं / अहमद नदीम क़ासमी
Kavita Kosh से
जेहनों में ख़याल जल रहे हैं|
सोचों के अलाव-से लगे हैं|
दुनिया की गिरिफ्त में हैं साये,
हम अपना वुजूद ढूंढते हैं|
अब भूख से कोई क्या मरेगा,
मंडी में ज़मीर बिक रहे हैं|
माज़ी में तो सिर्फ़ दिल दुखते थे,
इस दौर में ज़ेहन भी दुखे हैं|
सिर काटते थे कभी शहनशाह,
अब लोग ज़ुबान काटते हैं|
हम कैसे छुड़ाएं शब से दामन,
दिन निकला तो साए चल पड़े हैं|
लाशों के हुजूम में भी हंस दें,
अब ऐसे भी हौसले किसे हैं|