भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जेहन में न बैठे / कुँअर रवीन्द्र
Kavita Kosh से
मेरी आकांक्षाओं
करो अराधना
मेरी कल्पना साकार हो
परन्तु
न तो अज्ञेय की "प्रारब्ध में लिपटी" हो
न ही उसे दुष्यंत के "दरख्तों के साए में धुप लगे"
न तो शमशेर की कविता की तरह हो
कि हौले से छूना पड़े
इतनी गेय भी न हो
कि उसे हर कोई गा सके
न तो इतनी अतुकांत हो कि
किसी के जेहन में न बैठे