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जैसे ही फूल शाख़ से गिरकर बिखर गया / के. पी. अनमोल
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जैसे ही फूल शाख़ से गिरकर बिखर गया
सारा चमन उदासियों में डूब मर गया
मुझको तो रोशनी की ज़रा भी तलब नहीं
दहलीज़ पर चिराग़ मेरी कौन धर गया
उलझा है तेरे प्यार के धागों में जबसे दिल
तबसे मेरी हयात का पैकर सँवर गया
अपशब्द चीखते है मोहल्ले में हर तरफ
जाने ये किसकी आँख का पानी उतर गया
"घर की हरेक बात हवाओं को सौंप दो"
उफ़्फ़! कौन आके कान दीवारों के भर गया
ख़ुद को ही देख आईने में सोचता हूँ मैं
मासूम-सा जो शख़्स था इसमें किधर गया
मैसेज उसका आ ही गया आख़िरश मुझे
अनमोल! कॉल आया नहीं, दिन गुज़र गया